संरक्षण के अभाव में सिमट रही कच्छी घोड़ी नृत्य कला
रजनी मिश्रा
राजस्थान के राज दरबारों में जन्मी कच्छी घोड़ी नृत्य कला बाद में राजस्थानी संस्कृति के उत्सव, त्योहारों एवं जनजीवन के साथ इस तरह जुड़ी कि जन साधारण के मन में रच-बस गई है। गीत की तर्ज पर गाये जाने वाली पौराणिक कथाओं, शौर्य गाथाओं एवं प्रणय किस्सों को इस नृत्य में मुख्य रूप से शामिल किया जाता है। कलाकारों की नृत्य मुद्राएं, हाव-भाव, गायन, संगीत और संवादों की प्रभावी प्रस्तुति एवं घुंघरू बंधे पैरों की नपी-तुली थिरकन दर्शकों को आज भी मंत्रमुग्ध कर देती है।
कच्छी घोड़ी नृत्य कला में कलाकार की थिरकन से जुड़े लोक नृत्य घोड़ी के निर्माण का शिल्प, कलाकारों का हाव-भावपूर्ण अभिनय तथा गायकों एवं संगीतकारों का लोक संस्कृति के मिलेजुले स्वरूप का एक साथ मंच पर प्रस्तुतीकरण होता है। लेकिन लोक रुचि एवं संस्कृति से जुड़ी यह लोक नृत्य कला संरक्षण एवं प्रोत्साहन के अभाव में सिमटती-सी प्रतीत होती है।
कच्छी घोड़ी नृत्य कला के कलाकार अभावों भरा जीवन जीने को मजबूर हैं। प्रोत्साहन के स्थान पर उन्हें उपेक्षा और तिरस्कार का कड़वा घूंट पीना पड़ रहा है। कई कलाकार तो इन सब त्रासदियों से बुरी तरह शिकार हुए हैं। जो बचे हैं वे दु:खी होकर इस कला को छोड़ अन्य धंधों से पेट पालने को मजबूर हो गये हैं। फिर भी जो कुछ संघर्षरत कलाकार आज भी इस नृत्य कला को अपनी जीविका का साधन बनाये हुए हैं, उन्हें भी दो जून की रोटी के लाले पड़ रहे हैं।
कच्छी घोड़ी नृत्य कलाकार की धनोपार्जन की स्थायी व्यवस्था न होने से यह लोक नृत्य कला दम तोड़ रही है। नाट्य अकादमी भी इस ओर कोई सार्थक प्रयास नहीं कर पा रही है। वर्ष में दो चार कार्यक्रमों से इन कलाकारों को आर्थिक संबल प्राप्त नहीं होता है। कुछ ऐसी ही स्थिति लोक कला मंडल की भी रही है। कलाकारों की उपेक्षा कला संस्थानों द्वारा ही की जा रही है। कच्छी घोड़ी नृत्य से जुड़े एक कलाकार का कहना है कि, ‘हमें मिलता क्या है? दो-चार कार्यक्रम होते हैं। एक-दो हमारे हाथ आते हैं तो एक-दो दूसरे ले लेते हैं। इन हजार-आठ सौ रुपयों में क्या होता है?’
एक कच्छी घोड़ी कलाकार अपना नाम न छापने के अनुरोध पर बताता है कि इधर बीस पुराने कच्छी घोड़ी के नृत्य कलाकार हैं लेकिन उनकी खुली उपेक्षा इसलिए की जाती है कि वह बिचौलियों को कमीशन नहीं देते हैं। इन बिचौलियों द्वारा कुछ नौसिखियों को तैयार किया गया है। नये कलाकारों का आना गलत नहीं है। गलत है तो उनके अनुभवहीन होने से कला के मूल स्वरूप का नष्ट होना तथा बिचौलियों द्वारा उनका अधिक से अधिक शोषण किया जाना। कार्यक्रम देने के लिए आज अधिकारी-कर्मचारी कमीशन की बात पहले करते हैं।’
एक अन्य बुजुर्ग कलाकार का निराश स्वर में कहना था कि इस कला के कलाकार रहे ही कितने हैं? अब तो दिन पर दिन कम ही होते जा रहे हैं। अब पहले जैसे कला पारखी भी नहीं रहे। हमने तो इस कला में अपनी उम्र काट दी, लेकिन कलाकारों की नई पीढ़ी समुचित प्रोत्साहन एवं संरक्षण के अभाव में भटक रही है।’
उक्त कच्छी घोड़ी कलाकार की पीड़ा बहुत गहरी है, क्योंकि उसका मन भविष्य की शून्यता देख-समझ रहा है। वह जानता है कि आज इस नृत्य की लगाम जिन हाथों में जा रही है उनमें कला के प्रति मरने-खपने की भावना का अभाव है। पेट की आग ने उन्हें व्यावसायिक नजरिया अपनाने को मजबूर कर रखा है। फन के पीछे फकीर हो जाने की तमन्ना जब तक न हो तब तक कला का विकास कैसे संभव हो सकता है।
कच्छी घोड़ी नृत्य कलाकारों को राज्य सरकार से पर्याप्त प्रश्रय न मिलने से अति प्राचीन लोक नृत्य कला लुप्तप्राय: सी होती जा रही है। आज श्रेष्ठï कच्छी घोड़ी नृत्य के सच्चे कलाकार खोजने पर भी मुश्किल से मिलते हैं। यह शून्यता इस कला के अंधकारमय भविष्य की ओर ही इंगित करती है। वक्त अभी भी गुजरा नहीं है। यदि ईमानदारी के साथ अब भी सार्थक प्रयास किये जाएं तो लोक नृत्य कला की इस अनूठी विरासत को अभी भी बचाया जा सकता है।